SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *ORRRRR R* ~ ~ ~~~~uvvv~ ~ ~ ~ ~ ~ vvvvvvvvvvvv ~ ~ ~ बृहज्जैनवाणीसंग्रह २२७ सत इक्यासी। जिनगेह अकीर्तिम तिहुँजगभीतर, पूजत है पद ले अविनाशी ॥१॥ ओं ह्रीं त्रैलोक्यसंबंध्यष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतुःशतैकाशीति अकृत्रिमजिनचैत्यालयेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ * मलयागर पावन, चंदन बावन, तापबुझावन घसि लीनो । धरि कनक कटोरी द्वैकरजोरी, तुमपद ओरी चित दीनो ॥ वसु०॥ चंदनं ॥२॥ बहुभांति अनोखे, तंदुल चोखे, लखि निरदोखे, हम लीने । धरि कंचनथाली, तुमगुणमाली, पुंजविशाली, कर दीने ॥ * वसु० ॥ अक्षतान् ॥३॥ * शुभ पुष्प सुजाती है बहुभांती, अलि लिपटाती लेय श्री हैं. वरं । धरि कनकरकेवी, करगह लेवी,तुमपद जुगकी भेट घरं॥ वसु०॥ पुष्यं ॥४॥ खुरमा जुगदौड़ा, बरफी पेड़ा, घेवर मोदक भरि * थारी । विधिपूर्वक कीने, घृतपयभीने, बँडमै लीने, सुख*कारी ॥ वसु० ॥ नैवेद्यं ॥ ५॥ मिथ्यात महातम, छाय रह्यो हम , निजभव परणति नहिं सूझै । इहकारण पार्क, दीप सजाकै, थाल धराकै, हम पूजै ॥ वसु० ॥दीपं ॥६॥ * दशगंध कुटाकै, धूप बनाकैं, निजकर लेक, धरि ज्वाला। *तसु धूम उडाई, दशदिश छाई, बहु महकाई, अति आला॥ चसु० ॥धूपं ॥ ७॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy