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________________ १.२२८ बृहजनवाणीसंग्रह . *. बादाम छुहारे, श्रीफल धारे, पिस्ता प्यारे, दाख वरं । .. इन आदि अनोखे, लखि निरदोखे, थाल पजोखे, भेट धरं ॥ वसु० ॥ फलं ॥ ८॥ जल चंदन तंदुल कुसुम रु नेवज, दीप धूप फल थाल रचौं । जयघोष कराऊँ. बीन बजाऊँ, अर्घ चढ़ाऊँ, खूब । नचौं । वसु० ॥ अर्थ ॥ ९॥ अथ प्रत्येक अर्घ । चौपाई। अधोलोक जिन आगमसाख । सात कोडि अरु वहतर लाख ।। • श्रीजिनभवन महा छवि देइ । ते सब पूजौं वसुविध लेइ ॥१॥ ओं ही अधोलोकसंबंधिसप्तकोटिद्विसप्ततिलक्षाकृत्रिमश्रीजिनचैत्यालयेअभ्यो अयं निर्वपामीति स्वाहा ॥ * मध्यलोकजिनमंदिरठाठ । साढे चारशतक अरु आठ ॥ ते सब पूजौं अर्घ चढाय । मन वच तन त्रयजोग मिलाया२॥ ओं ही मध्यलोकसंबंधिचतुःशताष्टपंचाशत् श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अर्ध । ___ अडिल्ल-उज़लोकके मांहि भवनजिनजानिये । लाख * चुरासी सहस सत्याणव मानिये ॥ ताप धरि तेईस जजौ । शिर नायकैं। कंचन थालमझार जलादिक लायकै ॥३॥ । ओं ही उर्ध्वलोकसंबंधिचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोविंशतिश्रीजिन चैत्यालयेभ्यो अध्यं ॥३॥ + वसुकोटि छप्पनलाख ऊपर, सहसत्याणव मानिये। । सतच्यारपै गिनले इक्यासी,भवन जिनवर जानिये ॥ तिहुँ-1
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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