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________________ ३० विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। तरह आत्मध्यानके लिये चार बातोंकी जरूरत है। (१) आत्मध्यानमें लीन आदर्श मितिका देखना व उसको देखते देखते आमाके गुणोंका विचार करना व गुणसूचक पाठको पढना (२) आत्मज्ञानी गुस्से समझना (३) आत्मज्ञानवर्द्धक शास्त्रोको पढना (४) ज्यानका अभ्यास एकातमें बैठकर करना। शिष्य-क्या मूर्ति द्वारा भक्ति लाभकारी है सो किस तरह ' शिक्षक-हम लोगोंका मन चंचल है इसलिये मूर्तिके द्वारा देर तक गुणोंके विचारमे लग सक्ता है । आखोंकी दृष्टि जिस मूर्ति पर पड़ती है वैसा ही चित्तका भाव होजाता है। यदि हमारे सामने लोकमान्य तिलककी मूर्ति आवे तो उसको देखते ही तिलकके गुण स्मृतिमें आजाने है, देशभक्ति पैदा होजाती है। यदि हमारे सामने किसी सुन्दर स्त्रीकी मूर्ति आती है तो रागभाव पैदा कर देती है। यदि किसी पहलवान योद्धाकी मूर्ति आती है तो वीर भाव पैदा कर देती है। इसी तरह वैराग्यपूर्ण शांत ध्यानमय मूर्ति शुद्ध आत्माका स्मरण करा देती है। मूर्ति मात्र मूर्तिमानके भावोंको दर्शानेका एक चित्र है। फोटो देखकर यह हम जान सक्ते है कि जिसका फोटो है वह किस विचारमें फोटो लेते वक्त था-क्रोधमें था, लोममे था, मानमें था, मायामें था, भयमें था, कामभावमें था, जिस किसी भावमें मानवको मन जमता है, वैसी ही छाया उसके मुखपेर' चमकती है फोटोमें वही छाया आती है। इसलिये फोटोका चित्र उसी चित्रकी दशाको बताता है, जो उस मानवमें उस समय था जब उसका फोटो लिया गया था। मूर्तिका सम्मान व निरादर उसीको सम्मान च निरीदरं समझा जाता है जिसकी मूर्ति है। यदि हम स्वामी दया
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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