SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरा कर्तव्य। नन्दके चित्रके सामने झुककरं नमें तो स्वामीका ही सन्मान किया गया ऐसा समझा जायगा । इसी तरह यदि हम स्वामी दयानन्दके चित्रका अंविनय करें-कदाचित् उसे पगके नीच दवा ले-या उसको मुंहसे चिढ़ा तो स्वामी दयानन्दका निरादर समझा जायगा। आपने क्या नगरमें देखा नहीं है कई स्थानोंपर महापुरुषोंकी मूर्तियां खड़ी हैं। कहीपर कीन विकटोरियाकी मूर्ति है। ये सब क्यों खड़ी कीगई है। वे ईसीलिये हैं कि उनको देखते ही देखनेवालों के दिलों में उनके गुणं याद आवें जिनकी वे मूर्तिये है। यदि कहीपर पं० मदनमोहन मालवीयाकी मूर्ति या फोटो हो और हम देरतक देखते रहें तो हमारा मन उनके जीवनके कार्योपर चला जायगा कि देखो. यह वही मालवीयाजी हैं जिन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालयको कागीमें बड़े परिश्रमसे स्थापित कराया, जो हिन्दू धर्मके कट्टर माननेवाले व नियमरूपसे पूजापाठ जप तप करनेवाले व बड़ा ही चित्ताकर्षक व्याख्यान देनेवाले हैं। यदि कोई मालवीयाजीके गुणोंका भक्त उस मूर्तिके सामने उनकी गुणीवलीको कहनेवाला पाठ पढ डाले तो वह पाठ मालवीयाजीके लिये पढ़ी गया ऐसा समझा जायगा। क्योंकि यद्यपि वह आंखोंसे मालवीयाकी मूर्तिको देखें रहा है परन्तु उसका ध्यान पाठ पढ़ते हुए मालवीयाँजीके गुणोंकी ही तरफ है । यह पाठ पढ़ना उस पढनेवालोंके मनमें यह असर' भी पैदा करेगा या वह इस उत्साहको अपने भीतर पैर्दी कर लेगा कि मुझे भी कुछ थोडेसे भी गुण मालवीयजीके अपने जीवन में जागृतं करने चाहिये। इसी तरह यदि कोई श्री महावीर तीर्थकरकी मूर्तिक सामने जाकर वैट कावे व उनकी ध्यानमई मूर्तिको चारवार देखें और महावीर मंगवान के गुणानुवाद गावे व भक्तिसे
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy