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________________ २२] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा उतना ज्ञान व ढर्शन गुण हमारा प्रगट है,। जितना ज्ञान व दर्शन ढका हुआ है वह ज्ञानावरण दर्शनावरणका असर है। जितना अंतराय कर्म हटा हुआ है उतना आत्मवल प्रगट है । जित्तना आत्मवल ढका हुआ है वह अंतरायकर्मका असर है। एक बात यह भी समझलो कि जितना गुण आत्माका प्रगट है उसे पुरुषार्थ कहते है। जितनी कौके असरसे मलीनता है या कर्मोका बाहरी फल होता है उसे दैव कहते है। शिष्य-जरा कृपा करके दैव और पुरुषार्थको ठीक ठीक वताइये । मै इस बातको अच्छी तरह जानना चाहता हूं। शिक्षक-ऊपर हमने बताया है कि चार घातीय कर्म आत्माके गुणोंको विगाड़ते है। इनमेसे तीनके टवनेसे जितना ज्ञान, दर्शन, आत्मवल प्रगट है. वही वह शक्ति है जिससे हम विचारपूर्वक किसी कामका उद्यम कर सक्ते है । यह दैव व कर्मसे उल्टी वस्तु है, इसे ही पुरुषार्थ या उद्योग कहते हैं। यह हमारा शस्त्र जगतमे काम करनेके लिये है। चौथा मोहनीय कर्म है जब वह कुछ दवता है तब जितनी शाति प्रगट होती है वह भी पुरुषार्थमें गर्मित होजाती है। वह शांति भी हमारे उद्योगमे सहायक होती है। हरएक मानवको उचित है कि वह इस पुरुषार्थसे विचारपूर्वक लौकिक या पारमार्थिक काम करे। यदि कभी कर्मका उदव प्रतिकूल होगा तो काम सिद्ध न होगा, यदि अनुकूल होगा तो काम सिद्ध होजायगा । बहुधा हमारी उत्तम बुद्धि द्वारा विचार किये हुए काम सफल होजाया करते हैं। जैसे हम किसी व्यापारको वुद्धिसे विचारकर अपने आत्मबलके अनुकूल करें, यदि साता वेदनीय कर्म
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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