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________________ मैं कौन है। [२१ पकने है तब अच्छा या बुरा फल देते है । जैसे हम शरीरमें हवा, पानी, भोजन लेते है। ये सब भीतर पक कर अपना फल स्वयं खून, चरबी, मास, हड्डी व वीर्यमें पलटते हैं । वीर्यकी शक्तिसे हम लोग चलते फिरने, देखते सुनते, दौड़ते बैठते आदि जीवनके काम करते है । वैसे ही इस सूक्ष्म कार्मण देहमें मंचय किये हुए पुण्य या पापकर्म अपने अवसरपर पककर अच्छा या बुरा फल दिखाने हैं। जो कर्म सूक्ष्म शरीरमें बंधते हैं उनके मूल आठ भेद है (१) ज्ञानावरण कर्म--जो ज्ञान स्वभावको ढकता है। (२) दर्शनावरण कर्म-जो देखनेके स्वभावको ढकता है । (३) मोहनीय कर्म--जो मदिराके समान भ्रममें डालता है, रागद्वेष मोह पैदा करता है, शांतभाव व सच्चे विश्वासको भ्रष्ट करता है। (४) अंतराय कर्म-जो आत्मबलको रोकता है। (५) अयु कर्म-जो किसी शरीरमें कैद रखता है। (६) नाम कर्म-जो शरीरकी रचना बनाता है। (७) गोत्र कर्म-जो माननीय व निन्दनीय कुलमें जन्म कराता है तथा जिसके असरसे हम जगतमें ऊंच व नीच कहलाते है। (८) वेदनीय कर्म-जो सुख दुखकी सामग्रीका सम्बंध मिलाफर सुख दुःख भोगनेमें कारण होता है । इनमेंसे ऊपरके चार कर्माको घातिया ( destructive) कहते हैं क्योंकि ये चार कर्म आत्माके स्वभावको बिगाड़ते हैं । बाकीके चार कर्मोंको अघातीय ( non-destructive) कहते हैं क्योंकि ये केवल बाहरी सम्बन्ध मिलाते हैं। जितना ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मका जोर हटा हुआ है
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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