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________________ मैं कौन हूं। २३ अनुकूल होगा व अंतराय कर्म वाधक न होगा तो हमारे मनके अनुकूल कार्य सिद्ध होजायगा। व्यापारमें लाभ होगा। यदि कर्म प्रतिकूल होगा तो हानि होगी। हमने विचारपूर्वक किसी गाड़ी घोड़ेकी सवारी की और मार्गमें जाने लगे, यदि कर्म प्रतिकूल होगा तो हमारी गाड़ी लड़खड़ायेगी और हमें चोट लगजायेगी । जगतमें पुरुषार्थ और दैव दोनोंकी आवश्यकता है। एक दूसरेसे विरुद्ध है । जो प्रबल होता है उसकी विजय होजाया करती है। ____ अब आप यह समझ गये होंगे कि यह आत्मा कर्म जड़के संयोगके कारण अशुद्ध है जब कि स्वभाव इसका शुद्ध है । जैसे मैला पानी मैलके संयोगसे अशुद्ध है, पानीका स्वभाव शुद्ध है। मैला कपडा मैलके संयोगसे अशुद्ध है, स्वभावसे सफेद रुईका है। मैला सुवर्ण कालिमाके संयोगसे मैला है, स्वभावसे शुद्ध है । इसी तरह आत्मा स्वभावसे शुद्ध है, मात्र जड़ कर्मके संयोगसे अशुद्ध है। अब आपसे कोई पूछे कि आप कौन है तो आप क्या उत्तर देंगे ? शिष्य-अब तो मैं बहुत अच्छी तरह समझ गया हूं। मैं यही कहूंगा कि स्वभावसे मैं शुद्ध आत्मा हूं जिसमें पूर्ण ज्ञान है, पूर्ण शांति है, पूर्ण आनन्द है, स्वभावसे मैं अमूर्तीक हूं, कर्मके संयोगसे मैं अशुद्ध हूं। मेरेमें जो वर्तमान अवस्था होरही है वह कर्मोंका असर है। शिक्षक-वास्तवमें आप समझ गए है कि आप कौन है। जब आप अपनेको समझ गए है तब क्या आपने दूसरेको नहीं समझा है ?
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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