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________________ ४] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा गुण कभी किसी चीजसे भिन्न नहीं मिल सक्त है। जैसे मीठापना शक्करमे, ईखमे, अगृरमे मिलेगा। खट्टापना नीबू . ग्वटाई, टमलीमे मिलेगा। कडआपना नीममे मिलेगा। सज्जनपना सज्जनमे. दुर्जनपना दुर्जनमे, धर्म धर्मात्मामे, अधर्म अधर्मीमे. सत्य नत्यवादीमे. क्षमा क्षमावानमे, क्रोध क्रोधी मानवमे पाया जायगा। इसीतरह ज्ञान गुण या जानपना (courciousness) किसीमे मिलना चाहिये । जिस द्रव्यमे यह गुण सदा रहता है उसे ही आत्मा कहते है। यह जड शरीर उसके रहनेका घर है। जब तक यह दारीग्मे रहता है तबतक गरीर द्वारा सब जाननेका काम हुआ करता है। जब वह शरीरसे निकल जाता है तब गरीर जड कुछ भी जान नहीं सक्ता। इसलिये उसको मुर्दा कहते है। इसलिये आपको यही विश्वास रखना चाहिये कि मै आत्मा हूं , शरीर नहीं हूं । प्र०-प्रिय मित्र | क्या विज्ञानवेत्ता (Sentists) आत्माको मानते है । उ०-यद्यपि साफ २ नहीं मानते हे तौभी बहुतसे विज्ञानवेत्ताओकी यह सम्मति होती जाती है कि मात्र जडमे ही ज्ञान. इच्छा, स्मरण आदि नहीं होसक्ता है इसलिये कोई दूसरा पदार्थ और है। लडनमे मर ओलाइवर लाज विज्ञानके बहुत बडे विद्वान है। उनके वाक्य है "हम मग्नेके वाद विला नहीं जाते है. हम वन रहते है, हम स्वयं अपने मूल स्वभावसे कभी नहीं नष्ट होते है, हम . इस जड मासमई शरीरके जीवनसे आगे भी अविनाशो जीवनमे वने रहते है ।" सर ओलाइवर लाज अपनी पुस्तक रेमंडमे नीचे प्रमाण कहते है
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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