SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - २१८] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। भा०-योगी व्यानके विना कर्माको जलानेके लिये उसी तरह असमर्थ है जैसे दाढ व नखरहित सिह बडे२ हाथियोंको वश नहीं कर सक्ता । आत्मानुशासनमे श्री गुणभद्राचार्य कहते है ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः । तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज् ज्ञानभावनाम् ॥१७४॥ भा०-आत्मा शुद्ध ज्ञानस्वभावी है। अपने स्वभावकी प्राप्ति मोक्ष है इसलिये मोक्षके अथीको ज्ञानभावना भानी चाहिये। रागद्वेषो प्रवृत्तिः स्यान्नित्तिस्तनिषेधनम् । तौ च वाह्यार्थसम्बद्धौ तस्मात्तांश्च परित्यजेत् ।। २३७ ।। भा - रागद्वेष ही प्रवृत्ति है । उसका छोडना निवृत्ति है। वे रागद्वेष बाहरी पदार्थोके सम्बन्धमे होते है इसलिये इनको भी त्यागदे। श्री अमृतचन्द्र आचार्य समयसार कलशमे कहते हैव्यवहारविमूहदृष्टयः परमार्थ कलयति नो जनाः। तुपयोधाविमुग्यबुद्धयः कलयन्तीह तुषंन तंदुलम् ॥४९-१०॥ भा०-जो जन व्यवहार हीमे मूढतासे मगन है वे निश्चय तत्वको अनुभव नहीं करते है । जो भूसीके लेनेमे मूढ़ हैं वे तुषको ही तंदुल जानरहे है। तंदुलको तंदुल नहीं जानते है । क्लश्यता स्वयमेत्र दुपकरतरै मोक्षीन्मुखैः कर्मभिः । क्लश्यतां च यरे महावत तमेवमारेण भग्नांश्चिरं ।। साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं । ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कयमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि ॥१०७॥ मा०-कोई मोक्ष विरोधी कठिन क्रियाकाडसे स्वयं क्लेश
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy