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________________ जैनोंके भेद। [-१९ उठावें तो उठावे, या दूसरे कोई महाव्रत व तपके भारसे चिरकाल बंद करते हुए क्लेश उठावें तो उठावें । यह मोक्ष तो साक्षात् अपना ही एक अविनाशी पद है व अपने ही द्वारा अपने अनुभवमें आनेवाला है तथा शुद्ध ज्ञानमई है सो कोई भी आत्मज्ञानरूपी गुणके विना प्राप्त करनेको समर्थ नहीं होसक्त है। वे ही अमृतचंद्राचार्य पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहते है-- अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसात जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥ भा-रागद्वेषादि भावोंका प्रगट न होना ही अहिंसा है तथा उनहीका प्रगट होना हिसा है। यही जिन आगमका संक्षेप है। __ श्री पूज्यपादस्वामी समाधिशतकमें कहते हैंस्वबुद्धया यावद् गृह्णीयात् कायवाक् चेतसां त्रयम् । संसारस्तावदेतेपां भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः ।। ६२ ।। भार--जबतक मन, वचन, काय इन तीनोंको आत्माका स्वभाव माना जायगा या अपना माना जायगा वहीतक ही संसार है। इन तीनोंके भेदविज्ञानके अभ्याससे ही मोक्ष होजाती है । श्री पद्मनंदि मुनि निश्चयपञ्चाशतमें कहते हैशुद्धाच्छुद्धमशुद्धं ध्यायन्नाप्नोत्यशुद्धमेव स्वम् । जनयति हेन्नो हैमें लोहाल्लोहं नरः कटकम् ॥ १८ ॥ भा०-जो मानव शुद्धात्माका ध्यान करता है वह अपनेको शुद्ध स्वरूपमें कर देता है । जो अशुद्ध स्वरूपका ध्यान करता है
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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