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________________ A जैनोंके भेद । [२१७ झाणेण कुणउ भेय पुग्गल नीवाण तह य कम्माणं । घेत्तन्वो णियअप्पा सिद्धसरुवो परो वंभो ॥ २५ ॥ भा०--ध्यानके द्वाग पुद्गलसे नथा कर्मोसे अपने जीवको भिन्न करके अपने ही सिद्ध स्वरूपी परम ब्रह्मरूप आत्माको ग्रहण करना चाहिये। सयलवियणे थक्के उपजह का वि सासआ भावो । जो अप्पणो सहावो मोक्खस्स कारणं सोह ॥६१॥ भा०--मनके सर्व विकल्पोंके रुक जानेपर कोई एक अविनागी भाव पैदा होता है। जो आत्माका म्वभाव है वही मोक्षका कारण है। ढाढसी गाथामे एक आचार्य कहते है---- मण गेहेण य रुद्ध करणसुहं सुहविणा य णिग्गयो। णिग्गंणे अकसाआ अकसाआ हिंसओ पत्थि ॥ ७ ॥ मा० मनको रोकनेस टन्द्रियमुख रुक जाता है। निग्रंथ ही सुखी है। जो कवाय रहित है वही निग्रंथ है, जो कपाय रहित है वह हिंसक नहीं होता है। जो जाणइ अरहती दव्यत्य गुणन्य बज्ज यत्थेहिं । सोजाणई अप्पाणं माहो खलु जाइ तस्स लयं ॥ ३८॥ मा०--जो श्री अरहंत भगवानको द्रव्य, गुण, पर्यायोंके द्वारा समझता है वह अपने आपको समझता है, उमीका मोह अवश्य दूर होजाता है। श्री पद्मनंदि मुनि ज्ञानमारमे कहते हैझाणेण विणा जाई असमत्थो होई कम्मणिड्डहणे । दाढाणहरिविहीणो जह सीहो वरगयंदाणं ॥ ७ ॥
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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