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________________ १८० ] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा । कमानेका त्याग + रना अचौर्य अणुव्रत है। जो वस्तुएं सबके काममें 1 आसकती है व जिसके लिये राज्यकी व अन्य किसीकी मनाई नहीं 1 है उसको बिना ढिये यह श्रावक लेसक्ता है। जैसे नही, कृपका यदि मनाई हो तो । पानी, मिट्टी, जंगलकी लकड़ी, बनके फलादि विना आज्ञाके न लेनी चाहिये। यह श्रावक न्यायके ऊपर चल करके परिणामोंको चोरीके भावसे बचाएगा । अपनी विवाहिता स्त्री संतोष रखके परस्त्री या वेश्या आदिका 7 1 - त्याग करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है। अपनी स्त्री भी नियमित काम भोग करना जिससे शरीर निर्बल न हो, तथा धर्म, अर्थ, काम · पुरुषार्थके साधनमें विघ्न न पड़े। बलवान योग्य सन्तानके भावसे स्त्री प्रसंग करना । मित्रवत् स्त्रीके साथ रहकर दोनों मिलकर धर्म साधन व परोपकार करना. एक दूसरेकी उन्नति चाइना व परस्पर सहाई होना । आजन्मके लिये तृष्णाके घटानेके लिये अपनी भावना के अनुसार सम्पत्तिका नियम कर लेना कि इतनी संपत्ति होजानेपर हम अधिक नहीं कमायेंगे - उसीके भीतर भीतर ही रखेंगे । जैसे- कोई दस हजार, पचास हजार, एक लाख, दस लाख, एक करोड़, दस करोड़ या अधिकका प्रमाण करले । फिर इस संपत्तिको तफसीलवार नीचे लिग्वे १० प्रकार परिग्रहका प्रमाण करके बांट लेवें । १ क्षेत्र - खेत कितना, २ वास्तु- मकान कितने, ३ हिरण्यचाढी कितनी या कितना रुपया, ४ सुवर्ण- सोना जवाहरात. ५ धन - गाय, भैंस, घोड़ आदि, ६ धान्य- अनाज इतने मनसे अधिक - नहीं या एक महीने के खर्चके लायक, ७ दासी - इतनीसे अधिक
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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