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________________ श्रावकोंका आचार। [ १८१ नौकर न रक्खूगा, ८ दसि-इतने दाससे अधिक न सखूगा, ९ कुप्य-कपड़े इतने जोड़से अधिक न रववृगा, १० भांड-वर्तन इतने चजनके व इतने जोड़से अधिक न रवलूँगा । जितनेसे काम चल सकें उतना रखले, शेपका त्याग करदे । परिग्रह प्रमाण संतोष भावको बढ़ानेवाला है व अधिक हिंसादि पापोंसे बचानेवाला है । ___चक्रवर्ती, राजा, धनिक, सेठ अपनीर योग्यतानुसार परिग्रहका प्रमाण कर सक्ते है। तीन गुणव्रत-जिनसे अणुव्रतोंका मूल्य बढ़ जावे उनको गुणवत कहते है । जैसे ५ को ५ से गुणनेपर २५ होजाते है। (१) दिग्विरति-पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर चार दिशाओंमें चार विदिशाओं या कोनोंमें या ऊपर व नीचे दश दिशाओंमें जहांतक जानका प्रयोजन मालम होता हो वहांतकके लिये जन्मभरके लिये प्रमाण करले कि इतनी दूरसे अधिक लौकिक कामके लिये जाऊंगा नहीं व इससे बाहरसे माल मंगाऊंगा नहीं व बाहर भेजना नहीं। इसप्रकार हज़ारो कोसका भी प्रमाण कर सक्ता है । यदि संतोष हो तो बहुत थोड़ा क्षेत्र रख सकता है। किसी नदी, पर्वत, समुद्रकी हदसे प्रमाण कर सक्ता है । उस व्रतसे पांच व्रतोंका मूल्य इसलिये बढ़ जाता है कि वह मर्यादाके भीतर ही प्रयोजन भूत आरम्भ करेगा, मर्यादाके बाहर बिलकुल आरम्भ हिंसा न करेगा। (२) देशविरति-एक दिन, सप्ताह, पक्ष, मास' आदिकी मर्यादाके लिये जन्मपर्यंत किये हुए क्षेत्रके प्रमाणमेंसे घटाकर प्रयो जमभूत क्षेत्र आरम्भके लिये रख लेना, शेप क्षेत्रको उतने कालो' लिये त्याग देना देशविरति है। इससे यह और भी ब्रतोंका मूल्या, बढ़ा लेता है । कभी इस श्रावकको अपने ग्रामसे बाहर कुछ काम
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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