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________________ श्रावकोंका आचार। । १७९ अपने 'कुटुम्बका नाश करना चाहे, देशपर 'आक्रमण करके साधु पुम्पों व सज्जनोंको कष्ट देनी चाहे तो उससे अपनी रक्षार्थ, देश रक्षार्थ, माल जायदादके रक्षार्थ प्रयत्न करना। यदि कोई प्रयत्न न चल सके तो शस्त्र प्रयोगद्वारा उसको हटाना । 'इसमें जो प्राणियोंका चात होगा वह विरोधी हिसा है। . ' - : एक साधारण श्रावकको संकल्सी हिंसाका त्याग होता है। आरंभी हिंसाका त्याग नहीं होता है । यही अहिंसा अणुव्रत है। राज्य या पंच दंड योग्य अमत्य नहीं कहना। कर्कश. कठोरै, चुगलीके वचन न कहना. क्रोध, शोक, वैर, कलह कगनेवाले वचन न कहना, जो वस्तु हो उसको नहीं है ऐसा न करना, जो वस्तु नहीं है उसको है ऐसा न कहना । वस्तु कुछ है कहना कुछ है ऐसा नहीं कहना। ऐसा वचन भी न कहना जिससे दुमके प्राण चले जावें जैसे-किमी शिकारीने जानवरोंका हाल 'छां कि अमुक जंगलमें मृगादि हे या नहीं ? आप जानते हे नौ भी न बताना क्योंकि ऐसा मत्य वृथा ही प्राणोका घातक होगा । जिसमें अपना व दुसरोंका हित हो ऐसा वचन बहुत सम्हालकर कहना मत्य अणुव्रत है । कभी भी शास्त्र के विरुद्ध वचन न कहना, जिसमे अपना विश्वास जगतमें बढ़े ऐसा वचन कहना। स्तिमित मिष्ट वचन कहना। थोड़े गामे बहुत मतलब प्रगट करनेवाला हितकारी मीठा वचन कहना सत्य अणुव्रत है। राज्य या पंच दंड योग्य चोरी न करना । दुसरेकी वस्तु मुली, पड़ी हुई, गिरी हुई नहीं उठाना । विश्वासघात करके किसीका धन न छीनना । न्यायसे द्रव्य कमाना। अन्यायमे द्रव्य
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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