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________________ _आस्रव और बंध तत्व। [१३७ (३) संशय मिथ्यादर्शन-धर्मके निर्णयमे एक मत न होकर संशय रखना जैसे-आत्मा है या नहीं, परलोक है या नहीं, मोक्ष है या नहीं, कर्मबन्ध है या नहीं। (४) वैनयिक मिथ्या दर्शन-भोलेपनसे सर्व प्रकारके एकात व अनेकात धर्मोको धर्म मान लेना, सरागी वीतरागी सर्व देवोंको देव मान लेना, सग्रंथ निग्रंथ सर्व प्रकारके साधुओंको साधु मान लेना । यह भाव रखना कि हम तो संसारी है लोग कुछ समझ कर ही देव धर्म गुरुको मानते है, सर्वकी भक्ति करनेसे किसीसे कुछ किसीसे कुछ लाभ होजायगा। ऐसा मिथ्यात्वी विवेक रहित सत्य व असत्य सर्वको धर्म मानके श्रद्धान करता है।। (५) अज्ञान मिथ्या दर्शन-अपने हित व अहितकी परीक्षा किये विना व परीक्षा करनेकी शक्तिके विना पर्याय बुद्धि बने रहना, शरीरको ही आत्मा मान लेना, इंद्रियोंके सुखको ही सुख मान लेना, धर्मके जाननेकी कुछ इच्छा न करना, जैसी रीति चली आई है उसीको सत्य धर्म मानकर बैठे रहना, निर्णय करनेका प्रयत्न नहीं करना । इनमें से किसी भी मिथ्यादर्शनमें फंसा हुआ प्राणी निर्मल __ सम्यकुदर्शनको नहीं प्राप्त कर सकता है। सत्यधर्मकी शृद्धा नहीं कर पाता है, मानवजन्मको वृथा ही खो बैठता है, मिथ्यादर्शनके कारण प्राणी इन्द्रियोंके विषयोंका मोही होता हुआ रातदिन विषयवासनाकी तृप्तिके लिये तृष्णामें फंसा रहता है। इसीके कारण सर्व तरहका अन्याय करता है व अभक्ष्य भोजन करता, है। हिंसादि पापोंके करनेसे लाभ नहीं कर पाता है। अविरति भाव १२ प्रकारका भी है, ५ प्रकारका भी है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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