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________________ vvvvvv १३६] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। शिष्य-कृपा करके इनका कुछ विशेष बताइये? शिक्षक-सात तत्वोंके शृद्धान न करनेको या सच्चे देव, शास्त्र, गुरुके शृद्धान न करनेको या अपने आत्माको यथार्थ रूपसे श्रृद्धान न करनेको व आत्मीक अतीन्द्रिय आनंदका शृद्धान न करनेको मिथ्यादर्शनभाव कहते है। इस मिथ्यादर्शनके पांच भेद है (१) एकांत मिथ्यादर्शन-वस्तुमे अनेक स्वभाव होते हुए उनको न मानकर एक ही या कुछ ही स्वभावोंके रहनेका हठ करना एकात मिथ्यादर्शन है। जैसे कोई पुरुष अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र है, पुत्रकी अपेक्षा पिता है, भाईकी अपेक्षा भाई है, भानजेकी अपेक्षा मामा है, ये सव सम्बन्ध उस पुरुषमे एक ही साथ है। यदि कोई उस पुरुषको पुत्र ही माने, पिता न माने तो वह एकातको माननेवाला मिथ्या दृष्टि होगा। हरएक वस्तु अपने मूल स्वभावकी अपेक्षा नित्य है। अवस्थाके बदलनेकी अपेक्षा अनित्य है। दोनों स्वभावोंको एक साथ मानना यथार्थ है सत्य है । यदि इनमेंसे एक ही स्वभावको माना जाये कि वस्तु नित्य ही है या अनित्य ही है तो यह मानना एकात मिथ्यादर्शन होगा इससे वस्तुके स्वरूपका सच्चा ज्ञान न होगा। (२) विपरीत मिथ्यादर्शन-जो धर्म नहीं होसकता है उसको धर्म मानलेना, जो देव नहीं होसक्ता है उसको देव' मानलेना, जो गुरू नहीं होसकता है उसको गुरु मानलेना विपरीत मिथ्यादर्शन है । जैसे पशुओंकी बलि करनेसे धर्म मानना, रागी, द्वेषी देवोंको देव मानना, परिग्रहधारी संसारासक्त गरुको गह मानना ।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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