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________________ १३८] विद्यार्थी जैन कम शिक्षा। पाच इन्द्रिय तथा मनको वश न रखना तथा पृथ्वीकायिक, जलकायिक. अग्निकायिक, वायुकायिक तथा वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक प्राणियोकी दया न पालना। जो चाहे सो विचारे विना इन्द्रिय भोग करना व जैसे चाहे वैसे वर्ताव करना, प्राणियोंकी ढयाकी तरफसे बेखबर रहना, यह बारह प्रकार अविरति है। हिसा, असत्य, चोरी, कुगील. व परिग्रह इन पाच पापोंकी ममतामें फंसे रहना भी अविरति है। प्रमाद-आत्माके ध्यान व शुद्ध भावोंकी प्राप्तिमे अनादर क असावधानी रखना। देखकर चलनेमें, शुद्ध वचन बोलनेमे, शुद्ध भोजन करनेमें, देखकर रखने उठानेमें, मल मूत्र करनेमे प्रमाद सहित असावधानीसे वर्तना प्रमाद है। मन वचन कायको धर्ममार्गमे चलानेमें आलस्य रखना, उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग. उत्तम आकिंचन्य, उत्तम ब्रह्मचर्य इन दश प्रकार धर्मोके पालनमें प्रमाद रखना। स्त्री कथा, भोजन कथा, देश कथा, राजा कथामे समय वृथा गमाना । ____ कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ १६ प्रकार क. नौ कषाय ऐसे २५ प्रकार कषाय है। जिनके नाम हम पहले मोहनीय कर्मके भेदोंमे बता चुके है। * योग-मन, वचन, कायका हलन चलन तीन प्रकार है इसीके पन्द्रह भेद है चार मनयोग-सत्य, असत्य, उभय, अनुभय । चार वचन योग-सत्य, असत्य, उभय. अनुभय । सत्य, असत्य मिले हुए विचार व वचनको उभय मन क कचन .
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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