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________________ जीव तत्व। [१०७ ध्यानमय गुणस्थान है। ग्यारहवेसे लौटकर पीछे क्रम क्रमसे नीचे आता है । ग्यारहवेसे वारहवेमे नहीं जासक्ता है। ८.-अपूर्वकरण--यहां उन चार कपाय व नौ नोकपायोंका अतिमंद उदय होजाता है । यहां बड़े निर्मल भाव होते है। ९-अनिवृत्तिकरण-यहां साधुके और भी बड़े शुद्ध भाव हैं। यहा ध्यानके प्रतापसे नौ नोकपाय और क्रोध, मान, माया इन तीन कपायोंको उपशम श्रेणीवाला उपशम कर देता है व क्षपकश्रेणीवाला क्षय कर देता है। १०-मुक्ष्मसांपराय-यहां साधुके मात्र सूक्ष्म लोभका उदया रहता है। ११-उपशांत मोह-यहां साधका सर्व चारित्र मोहकर्म उपशम होगया है, वीतरागभावमें रहता है | १२--क्षीणमोह--ग्रहां साधुके सर्व मोहनीयकर्म पूर्णपने नाश होगया है। यथार्थ वीतरागता प्रगट होजाती है। यहां ध्यानके वलसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मोको नाश करके तेरहवें गुणस्थानमें जाता है। १३--सयोगकेवली--यहां अहंत परमात्मा होजाता है। चारों घातीय कर्म क्षय होजाते है । अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतबल ये चार मुख्य गुण प्रगट होजाते है। इस दशामे अहतका उपदेश व विहार उनकी आयु पर्यंत हुआ करता है। कुछ काल आयुके शेप रहनेपर चौदहवां गुणस्थान होता है। १४--अयोगकेवली-यहां मन, वचन, कायका कोई हलनचलन नहीं होता है। आयुके अंतमें वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र इन
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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