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________________ १०६] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। लिये ग्यारह श्रावककी श्रेणियोमे चारित्रको बढाता चला जाता है। यहा जब आत्मानुभवके अभ्याससे प्रत्याख्यानावरण कपायोंका भी उपशम होजाता है तब यह सर्व परिग्रह त्यागकर माधु होजाता है। ध्यानमें बैठ जाता है तब पाचवेसे सातमा गुणस्थान अप्रमत्तविरत होजाता है। इसका काल अंतहत है। इसके पीछे वह गिरकर प्रमत्तविरत छंट गुणस्थानमे आता है। इसका काल भी अंतर्मुहर्त है। साधु पुन. पुन छठं सातवेमे आवागमन करता रहता है, जबतक आगेके गुणस्थानमे न चढे । ६--प्रमत्तविरत-यहां मात्र संज्वलन चार कपाय और नौ नोकपायोंका तीव्र उदय रहता है। इस दरजेमे साधुजन आहार, विहार, उपदेश, शास्त्र पठन आदि व्यवहार काम करते है। यदि इन कार्योंके करने में अंतर्मुहूर्तसे अधिक समय लगे तो बीच बीचमें सातमा गुणस्थान कुछ देरके लिये होजाया करता है। चाहे एक मिनट के लिये क्यों न हो। यहांतक कुछ आत्मध्यानमे प्रमाद या आलस्य रहता है। इसलिये इस गुणस्थानको प्रमत्तविरत कहते है । नीचेके पाच पांच गुणस्थानोंमे भी प्रमाद रहता है। नीचे२ अधिक प्रमाद होता है । ७--अप्रमत्तविरत-यहा प्रमाढ नहीं होता है। ध्यानमम अवस्था रहती है। यहा चार संज्वलन व नौ नोकपायोंका मंद उदय है। यहासे आगे दो श्रेणिया हे -एक उपशम श्रेणी जहा चारित्र मोहनीयको उपशम किया जाता है। दूसरी क्षपक श्रेणी जहा उसका क्षय किया जाता है। उपशम श्रेणीके ८, ९, १०, ११ चार गुणस्थान हैं। क्षपकश्रेणीके ८, ९, १०, १२ चार गुणस्थान है। आठवेसे बारहवें तक हरएक गुणस्थानका काल अंतर्मुहूर्त है। ये सब
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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