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________________ - १०८] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा चारों अघातीय कर्मोका भी नाश होजाता है तब आत्मा बिलकुल शुद्ध होकर जड पुद्गलमे रहित सिद्ध परमात्मा होजाता है। अब कोई शरीर नहीं रहता है ! क्या आप समझ गए । शिप्य-मै अच्छी तरह समझ गया. वास्तवमे ये गुणस्थान बडे ही उपयोगी है। शिक्षक--अब मैं आपको चौदह मार्गणाएं बताता हूं। संसारा जीवोंको जहा तलाश किया जावे व जिन अवस्थाआमे ये पाप जावे उनको मार्गणा ( soul quert ) कहते है। ये मार्गणाएं चौदह है.-१- गति, २--इन्द्रिय, ३- काय. ४-योग, ५--वेद ६-कषाय,७-ज्ञान, ८ -संयम... दर्गन, १०-- लेश्या, ११. भव्य, १२--सम्यक्त. १३--सैनी, १४..आहारक 17 - गति चार होती हे-नरक, तिर्यच (पशु) मनुष्य, देव । सर्व संसारी जीव इन चार गतियोमेसे किसी एक गतिमे पाए जाने है। वृक्षादि एकेन्द्रियसे चौद्री तक सत्र तिर्यंच गतिमे होते हैं। पंचेंद्रिय चारों ही गतियोंमे होते है। २--इंद्रिय पाच होती है । स्पर्गन. रसना, प्राण. चक्षु, कर्ण । सर्व ससारी जीव कोई एकेन्द्रियवाले कोई दो इन्द्रियबाले, कोई तीन इन्द्रियवाले, कोई चार इन्द्रियवाले, कोई पाच इन्द्रियवाले मिलेंगे। ३- काय छ. होती है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, सकायिक । सर्व एकेद्रिय *-गत्यक्षकाययोगेषु वेदक्रोधादिवित्तिषु, वृत्तदर्शनलेश्यासु भव्यसम्यक्त्वसज्ञिषु । आहारके च जीवाना मार्गणाः स्युश्चतुर्दशः ॥३७१ त. सार।। - -
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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