SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६० वर्द्धमान ( ८४ ) "वहित्र-सा जीवन मध्य-रात्रि के पडा रहा चद्र-विहीन सिंधु में, मिला न दिग्सूचक-'यत्र सा जभी प्रिये । तुम्हारा कर, मै दुखी रहा।" ( ८५ ) "प्रकाश से शून्य अपार व्योम मे उडी, वनी आश्रित-एक-पक्ष में मिला नही, नाथ | द्वितीय पक्ष-सा जभी तुम्हारा कर मै दुखी रही।" ( ८६ ) "प्रताप से, जीवन से, प्रकाश से प्रिये । सदा हो अति प्रेयसी मुझे, वहा कभी था अनुराग-उत्स जो प्रवाह-संयुक्त अजस्र' हो रहा।" ( ८७ ) "समीर-सी प्रेम-तरग है, प्रभो। न ज्ञात है आगम-निर्गम-स्थली, अवाघ' तो भी वहता प्रवाह है नसो-नसो में मुझ प्रेम-प्राण के।" 'कम्पास । 'निरतर । 'अप्रतिहत-गति ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy