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________________ पहला सर्ग ( १११ ) सरोज-द्रोही, रस-शून्य-देह है, सुगव से हीन शशाक ख्यात है, न साम्य पाती त्रिशला-मुखेन्दु का मलीमसा' प्राकृत चद्र की कला । ( ११२ ) द्विधा किया चन्द्र विरचि ने यदा मनोहरा की रचना कपोल की, मृगाक-नि 'प्यदित-विन्दु से तदा महा मनोज्ञा रदनावली रची। ( ११३ ) अनूप ताली-दल से मनोज्ञ वे सु-कर्ण थे शाण कटाक्ष-वाण के । मनोज्ञ नासा सित-मौक्तिकान्विता, सुलेख्य तूणीर प्रसून-पुख' का । ( ११४ ) शशांक के मंडल में सरोज दो प्ररूढ होते यदि, तो अवश्य ही कवीन्द्र पाते बहु कष्ट के बिना महामनोज्ञा त्रिशला-मुखोपमा । 'मैली। चद्रमा । 'निकला हुआ । 'ताड़-वृक्ष । 'तरकस । 'कामदेव ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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