SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बर्द्धमान ( १०७ ) न इन्दु भी है त्रिगला-मुखेन्दु-सा, असार सारी कवि-कल्पना हुई, कटाक्ष-भ्रू-भग कहा सुधाशु मे प्रसाद'-कोपादि कहाँ शनाक मे । ( १०८ ) विलोकते ही त्रिगला मुखेन्दु को नृपाल के नेत्र चकोर हो गये, परन्तु ज्यो ही क्षण-एक के लिये पुन विचारा भ्रम व्यक्त हो गया। ( १०९) कहाँ प्रिया के मुख को महा प्रभा, वराक शुभ्रागु' कहाँ, न तल्यता, कलक से श्रीत्रिशलास्य हीन था स-दोष दोपाकर विश्व-ख्यात है ( ११० ) समुद्र में जन्म, मलीन प्रात मे, सदैव न्यूनाधिक, राहु-ग्रस्त भी, वियोग मे दुखद चक्रवाक को न अब्ज भी था त्रिगला मुखाज-सा। 'प्रसन्नता। 'वेचारा । 'चद्रमा । 'चद्रमा। 'चद्रमा ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy