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________________ पहला सर्ग ( ४८ ) नपाल थे व्यस्त सदैव आर्त के विषाद के भजन मे स-कष्ट' के, न शंखपद्मी न गदी', परन्तु वे यथार्थत दो भुज के मुकुन्द थे। ( ४९ ) सदा द्विजावास तथैव निर्मली विशाल थे जीवन -धाम राज्य के, तडाग-से शोभित पद्म-युक्त वे नरेश तृष्णा हरते अधीन की। ( ५० ) नृपाल कालानल शत्रु-पुज को, लखे गये कल्प-फली कलाढय-से, उन्हे शरीरी रति-नाथ-तुल्य ही विलोकती थी गृह-इन्दिरा प्रिया । ( ५१ ) नरेश की कीर्ति अराति-ओक' मे, अरण्य मे, अबुधि मे, अहार्य मे, लसी अधो-भूतल-अतरिक्ष में महा मनोज्ञा बहुरूपिणी-समा । 'दुखी (मनुष्य) गदा-युक्त। पक्षी या ब्राह्मणो का निवास । 'जल। वृक्ष। गृह। पर्वत ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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