SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ वर्द्धमान ( ४४ ) प्रसन्न लक्ष्मी गृह में विराजती, तथैव चितामणि राज्य-कोष में, वसी विधात्री' मुख-मध्य शोभना, प्रचड बडी भुज-दंड पै लसी। नरेन्द्र भू पै मलयाद्रि-तुल्य थे महाह-गाखा-सम हस्त में लसी कृपाण सर्पाकृति', जो निकालती सुकीर्ति का कचुक गत्रु-कठ से । (४६ ) मुधैर्य, लावण्य, तथा गंभीरता, अनूप तीनो गुण है समुद्र मे, परन्तु जो नेत्र-प्रमोद दे सके नरेन्द्र-सा विग्रह' सो न पा सका। ( ४७ ) न स्वप्नमें भी रण-मध्य भूप को विमोचती थी सुभगा जयेन्दिरा' प्रभाव' से पूर्ण ययंत्र कान्त को न छोटती है वनिता रति-प्रिया । मरस्वती। 'बदन । 'मर को प्रारनि की। "तन-प्राण, मन्नाह । शरीर। विमान। “वनंम्ब ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy