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________________ सत्रहवाँ सर्ग 561 ( 144 ) परोपकारार्थ प्रसून फूलते, परोपकारार्थ फली' प्ररोहते, परोपकारार्थ नदी-गवादि है, परोपकारार्थ शरीर साधु का / ( 145 ) गजेन्द्र भी खा तृण दान दे रहे, सुरेन्द्र भी धन्य परोपकार से न पुण्य कोई पर-लाभ-सा यहाँ परार्थ' तीर्थकर भी पधारते। [ द्रुतविलंबित ] ( 146 ) सकल विश्व विभाजित है द्विधा विधि-प्रपंच भरा गुण-दोष से / मिल सके यदि मजु मराल तो पय' लहे पय त्याग करे सुधी। [ वंशस्थ ] ( 147 ) प्रवृत्त संध्या उस काल हो गई निशेश-ज्योत्स्ना-मय अतरिक्ष था। अशेष-नक्षत्र-प्रकाशमान हो बना रहे थे नभ अर्क' वृक्ष-सा / 'वृक्ष / दूसरे के लाभ के लिये / 'दूध / 'जल / 'मदार।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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