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________________ सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मोपदेश १६१ कर्मों के परमाणु नष्ट हों, निखरे चेतन । हो जिनेन्द्र, हो जाए इसका ज्ञानमयो तन ॥ श्री सर्वज्ञ वचन-किरणावलि से है होता । ध्वस्त तिमिर अज्ञान हृदय, मिथ्या-निशि खोता॥ ज्ञानालोक सहज छा जाता, अन्तस्तल में । छिपते पाप-उलूक नृत-चमगादर पल में ॥ चोर कषाय न कियत चुरा पाते,आत्मिक निधि । सजग चेतना के प्रहरी रहते हैं सब विधि ।। आत्मा-चकवे का सारा है शोक, विनशता । कारण वह निज परिणति चकवी को पा लेता ॥ मानस-मानसरोवर शीतल धवल सरसता । जहाँ विवेक-सुहंस सु-गुण-मुक्ता-दल चुंगता ।। शुद्ध भाव का सरसिज सुन्दर सहज विहंसता । प्रशम मन्द मकरन्द मधुप-सा, उड़ता फिरता॥ जग के कट भ्रमजालों से अति ऊपर उठकर । चलता साधु-काफिला चिर उन्नति के पथ पर । वीतराग अरिहन्त वीर का, वृष-विहार वर । स्वतः उधर होता रहते, भवि जीव जहां पर ॥ जिधर विहार हेतु चलते, सर्वज्ञ जिनेश्वर । उधर भूलते वैर विरोधी, पशु, खग, सुर नर ॥ बिन ऋतु होते वृक्ष मंजरित, कुसुमित फलयुत । मानों सजकर प्रकृति संजोती सन्मति-स्वागत ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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