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________________ २६२ तीर्थकर भगवान महावीर । दल-बादल-सी भीड़ उमड़ती, दर्शन के हित । पाती है सब समवशरण में शरण भेद-हत ॥ देव नपति या अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति न केवल । पाते प्राश्रयं वीर-चरण में प्राणी निर्बल ॥ महावीर के सभा-सदन में, पशु-से प्राणी । हैं हकदार श्रवण करने को सम जिन वाणी ॥ महावीर उपदेश सर्वहित, जीव दयामय । प्राण-अपहरण किसी भांति भी नहीं धर्ममय । जियो और जीने दो जग में सबको निर्भय । परम अहिंसां धर्म प्रकट करते ममतालय ॥ संकल्पी उद्यम-आरम्भी और विरोधी । हिंसा कार्यों का त्यागी ऋषि साधु अक्रोधी ॥ पर श्रावक-गण भी संकल्पी हिसा-त्यागी। पूर्ण अहिंसक बनने को रहते अनुरागी ॥ दिखते हैं संघर्ष कलह-विद्वष जगत के । एक परिग्रह के कारण मानव-समाज के ॥ हैं उपभोग्य पदार्थ विश्व के, सारे सीमित । उपभोक्ताओं को इच्छाए', किन्तु अपरमित ॥ विना किए परिमाण परिग्रह का कैसे जन । बन सकता है निखिल विश्व में साम्य संतुलन ॥ साम्यवाद भी दर्शाते, सन्मति स्वामी हैं। समवशरण में साम्य मूर्ति, समता-गामी हैं ।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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