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________________ १६० तीर्थकर भगवान महावीर आता जिस पर मोक्ष-सुफल हैं.पक्व समय है में । चिर सुख, दर्शन, ज्ञान, वीर्य होता स्वोदय में । दिव्य सु-ध्वनि यह वर्द्धमान को, सर्व गम्य जो। पक्षपात दुर्भेदभाव-हत, समतामय जो॥ शुभ प्रभात मध्याह्न और अपराह्न समय में। होता है वीरोपदेश शुभ समवशरण में ॥ वस्तु स्वभाव धर्म-सद्दर्शन, प्रात्मोन्नति मग । करता आत्म-प्रतीति खोलते, अन्तर के हग ।। दर्शाते जग प्रादि अन्त विन, नव्य न सर्जन । नव रचना संज्ञा केवल, स्वरूप परिवर्तन ॥ है प्रति वस्तु अनेक धर्म की, निखिल विश्व में । यों न सत्य के दर्शन होते, एक दृष्टि में ॥ मिटते वादविवाद जगत के स्यावाद में । सप्तभङ्ग नय दर्शाती 'सत्' निविवाद में ॥ निश्चयनय सम्यक विधि चित-जड़ भेद दिखाती। है व्यवहार दृष्टि लेकिन पर्याय बताती ॥ मिथ्या दर्शन वश यह प्राणी दुख-संसृति थित। सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चरित-मग,मोक्ष सुनिश्चित ।। है निसर्गतः प्रात्म, ज्ञान, सुख, वीर्य, दर्शयुत । विकृत अवस्था में जगती में, पर-प्रकर्ष-रत ॥ इच्छा के कारण बन्दी यह, कर्म-जेल में । निज शाश्वत पद भूल रहा-वसु कर्म मेल में ।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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