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________________ १५६ सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मोपदेश श्रवण मनोगत भावों को करें, 'असमंजस में। गौतम का मन भर प्राया, पर श्रद्धारस में। भक्ति भाव में छके हुए से, शिष्य बन गए । साथ बन्धु युग वीर चरण में, प्राज रम गए। चले बनाने शिव्य, शिष्य ही स्वयम बने अब। दिव्य नियत का खेल कि अभिनव नाटक नीरव ।। प्रश्नोत्तर कर विभु से करलो, धर्म परीक्षा। गौतम ने यों उभय भ्रातृ संग, ली जिन-दीक्षा। हुए ध्यान में लीन और पूर्वाह्न समय में । ऋषि गौतम ने पाई अपने आत्म-निलय में। सप्त लब्धियाँ बुद्धि विक्रिया प्रक्षय तप रस । ऊज और औषधि को प्रगटित,ज्ञान प्रशम रस ॥ पुरुषोत्तम ऋषि गौतमको मति अब निर्मल तर। होती जाती धवल विमल उज्वल, उज्वल तर॥ धोरे-धीरे योग्य दुए वे, गणधर पद के । और हुए वे पहले गणधर, वीर-संघ के ॥ खिरी बीर-ध्वनि श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन । विपुलाचल पर प्रथम देशना का सम्वर्षण । द्वादशाङ्ग एवं उपांगयुत, श्रुत-पद रचना । की गौतम ने और बहाया, शारद झरना । अमिसिंचित जो भव्य-क्यारियां, करता बहता। जिसमें सम्यक् सदाचरण का, पुष्प विहंसता॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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