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________________ १०२ तीर्थङ्कर भगवान महावीर आहे ! चेतन का महा यों, हो रहा अपमान निशि-दिन । पोषित हो रहा है, और यह रत घिनगेह जड़ तन 11 वीर्य - रज से देह छो: अशुचि अवतार है चर्म वेष्टित हाड़ मज्जा, का श्रागार है यह || रक्त उपजी, यह । कौन इससे घृणित प्रतिशय, वस्तु जग में हो नौ मुखों से मंल रात दिन क्या लाभ सकेगी । इस लिए इस भ्रमण की गति हो बहता, देगी ? विष भरा जैसे कलश रोग शोकों का पिटारा किन्तु फिर भी लोन इसमें, जीव सहता दुख विचारा ॥ हो, मोह का पर्वा पड़ा ज्ञान- ज्योति न मिल रही है । जीव को तो, रही है ॥ भ्रमित बेही देह के हित, इच्छ। ऐ संजोता । नवल
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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