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________________ पंचम सर्ग : नरुणाई एवं विराग कर्म पुद्गल का निमंत्रण, आस्रव यों नित्य होता ॥ सिवा कर्मों के न जग में, और जो मम प्रहित कर ले। कर्म का ही प्रागमन, जो पुण्य पीड़ा में बदल दे ॥ ___ भावनाएं औ' क्रियायें, खींचती हैं कर्म रहती । इसलिए सद्भावनायें, सक्रियाएं शुभ्र रहतीं ॥ मोक्ष के हित किन्तु हमको, चाहिए सब कर्म का क्षय । प्रतः पाना रुक सके, रिपुकर्म का, हो दूर जग-भय ॥ पञ्च व्रत शोलापरिग्रह, सत्य औ, अस्तेय, करुणा । अनुसरण हो, पञ्च इन्द्रिय की, विजय को बहे वरुणा ॥ इस तरह हों बन्द कर्मों के, लिये निज क्रिया द्वारे । तमी संवर, हो सकेंगे, बन्द आस्रव के किबारे ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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