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________________ पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग देख लो मन ! सत्य जग में, कौन हो । पाया दुकेला ॥ मात-पितु ये, इष्ट जन सब, लोक-कथनी में सगे हैं । किन्तु मुझको भासता ये, मोह-संसृति में पगे हैं ॥ ___ जब किसी को कष्ट होता, रे, असह इस मर्त्य तन में । कौन तब लेता बटा है, भोगता वह आप मन में ॥ बात क्या है इष्ट जन को, यह न देहो मो हुई निज । कर रहे जिसकी सुश्रा , अन्त में वह जायगी तज॥ देह जड़ है मैं सु-चेतन, वर्तमान विभाव परिणति । इसी कारण विश्व में हं, सह रहा मैं दुःख अगणित ॥ ___ मोह वश संसार तन को, नित्य अपना मानता है । मात्म रूप विसार कर, वह दुःख रौरव मोगता है ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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