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________________ [ १० ] उक्त कथन से इतना तो स्पष्ट है कि भाष्यकार वाचक उमास्वाति इस विषय में स्वयं मौन हैं। उनकी प्रशस्ति से यह नहीं ज्ञात होता कि उन्होंने स्वयं मल सूत्रों की रचना की है। और न ही भाष्य के प्रारम्भ में आये हुए श्लोकों से इस बात का पता लगता है। हाँ उनके बाद के दूसरे श्वेताम्बर टीकाकारों ने यह अवश्य स्वीकार किया है कि उमा. स्वाति ने मूल सूत्र और भाष्य दोनों की रचना स्वयं की है। २-दूसरा उल्लेख वीरसेन स्वामी की धवला टीका का है जिसमें तत्त्वार्थसूत्र के कर्तारूप से गृद्धपिच्छ आचार्य का उल्लेख किया गया है । काल द्रव्य की चरचा करते हुए वीरसेन स्वामी जीवट्ठाण के काल अनुयोगद्वार (पृ० ३१६ मुद्रित ) में लिखते हैं__ 'तह गिद्धपिछाइरियप्पयासिदत यसुत्ते विवर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य इदि दबकालो परूविदो।' वीरसेन स्वामी ने शक सं० ७३८ में धवला टीका समाप्त की थी। ये सिद्धान्त, ज्योतिष, गणित और इतिहास आदि अनेक विषयों के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनके द्वारा 'गृद्धपिच्छ आचार्य द्वारा प्रकाशित तत्त्वार्थसूत्रमें ऐसा उल्लेख किया जाना साधारण घटना नहीं है । मालूम पड़ता है कि वीरसेन स्वामी के काल तक एकमात्र गृद्धपिच्छ आचाये तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता माने जाते थे। गृद्धपिच्छ को विशेषण मानकर उमास्वाति या उमास्वामी इस नाम को प्रमुखता बहुत काल बाद मिली है।' विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक से भी इसी बात का समर्थन होता है १ पिछली मुद्रित प्राप्तपरीक्षा की सोपज्ञ बृत्ति में 'तत्त्वार्थसूत्रका रैरुमास्वामिप्रभृतिभिः' पाठ है पर मालूम होता है कि यह किसी टिप्पणी का अंश मूल में सम्मिलित हो गया है। न्यायाचार्य दरवारीलाल जी ने आप्तपरीक्षा का सम्पादन किया हैं उसमें यह पाठ नहीं है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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