SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशाङ्गविदः ॥१॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीतः ॥ २॥ न्यग्रोधिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कौमीषिणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनाय॑म् ।। ३ ॥ अहद्वचनं सम्यग्गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य । दुःखातं च दुरागमविहतमति लोकमवलोक्य ॥ ४ ॥ इदमुच्चै गरवाचकेन सत्वानुकम्पया द्रव्यम् । तत्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टामास्वातिना शास्त्रम् ॥ ५॥ यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम् । सोऽव्याबाधसुखाख्यं प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥ ६ ॥ यद्यपि इसमें तत्त्वार्थाधिगम नामक शास्त्र के रचयिता रूप में उमा. स्वातिका उल्लेख किया गया है किन्तु इससे यह ज्ञात नहीं होता कि तत्त्वार्थाधिगम यह संज्ञा किसकी है-मूल सूत्रों की, भाष्य की या दोनों की? ___उक्त प्रशस्ति के चौथे और पाँचवें श्लोक में यह बात कही गई है कि गुरु परम्परा से प्राप्त हुए श्रेष्ठ अहत वचन को भली प्रकार धारण कर"इस तत्त्वाथोंधिगम नामक शास्त्र की रचना की गई है। इस पर से यह आहेत वचन' क्या वस्तु है यह जानने की जिज्ञासा होती है। बहुत सम्भव है कि वाचक उमास्वाति के सामने तत्वार्थ विषयक मल सूत्र रहे हों जिनको आधार मानकर इन्होंने उनका सम्यक् प्रकार से ज्ञान करानेवाला यह तत्त्वार्थाधिगम नामक भाष्य लिखा हो।जो कुछ भी हो,
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy