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________________ चच सद्धि | इहां नास्तिकमती कहै है-जो पृथ्वी-अप-तेज - वायूका परिणामविशेप सो स्वरूप चेतनात्मक आत्मा है । सकल-11 लोकप्रसिद्ध यह मूर्ति है यातें जुदा कोई और आत्मा नांही। तातें कौनकै सर्वज्ञवीतरागपणां होय ? वा कौनकै मोक्ष होय ? वा कौनकै मोक्षमार्गका कहनां वा प्रवर्तनां वा प्राप्तिकी इच्छा होय ? वहुरि ये सर्व ही नांही तव मोक्षमार्गका सूत्र सर्वार्थ काहेहू व ? ताकू कहिये है, हे नास्तिक! स्वसंवेदनज्ञानतें आत्मा देखि, प्रत्यक्ष है कि नाही? जो आत्मा नांही है तो | " मै हौ" यहु स्वसंवेदनज्ञान कौनकै है ? । बहुरि नास्तिक कहै यहू स्वसंवेदन भ्रमरूप है। ताकू कहिये, सदा वाधाकरि निका टोका रहित होय ताळू भ्रमरूप कैसे कहिये ? तथा भ्रम भी आत्माविना जडके होय नांही। बहुरि पृथ्वी आदि जडवि यहु स्वसंवेदन संभवै नांही। जो या स्वसंवेदनके लोप मानिये तो काहकै अपने इष्टतत्त्व साधनकी व्यवस्था न ठहरै। तातें । पृथ्वी आदि स्वरूप जो देह तातै आत्मा चेतनस्वरूप भिन्न तत्त्व ही है ऐसा माननां । जात चेतनका उपादान कारण चेतन ही होय । जडका उपादान कारण जड ही होय । ऐसे न मानिये तो पृथ्वी आदि तत्त्व भी तेरै न्यारे न ठहरै। सजातीय विजातीय तत्त्वकी व्यवस्था न ठहरै। एकतत्त्व ठहरै तो नास्तिक च्यारि तत्व कहै है ताकी प्रतिज्ञा बाधित होय । बहुरि नास्तिक कहै जो चैतन्य गर्भादिमरणपर्यत है, अनादि अनंत नांही। तात तत्त्व नाही। ताकू कहियै द्रव्यतै अनादि अनंतस्वरूप आत्मा है , पर्यायतें अनित्य भी है। सर्वथा अनित्य ही माननां वाधासहित है। द्रव्य अपेक्षा भी अनादि अनंत नित्य न मानिये तो तत्त्वकी व्यवस्थाही न ठहरै ॥ बहुरि बौद्धमती सर्ववस्तु सर्वथा अणिक माने है। ताकै बंधमोक्षादिक न संभवै । करै और ही, फल और ही भोगवै, तब बंधमोक्षादिका आश्रयी द्रव्य नित्य मान विनां सर्वव्यवस्थाका कहनां प्रलापमात्र है॥ बहरि साख्य पुरुपकों सदा शिव ९ कहै है, ताकै बंधमोक्षकी कथनी कहा ? प्रकृतिकै बंधमोक्ष है, तो प्रकृतिते जड है ताकै बंधमोक्ष कहना भी प्रलाप ही है। बहुरि नैयायिक वैगोपिक गुणकै गुणाकै सर्वथा भेद मानि अर समवाय संबंधसूं एकता मान है। सो गुण गुणी समवाय ये तीन पदार्थ भये। तहां जीव तो गुणी, अर ज्ञान गुण, सपवाय जीवकू ज्ञानी कीया। तब जीव तो जड ठहय। बंधमोक्ष जडकै कहना निरर्थक है ॥ बहुरि समवाय गुणगुणीकै एकता करी, तब समवाय भी तो जीवतै एक हुवा चाहिये | तो या एक कुंण करेगा। जो दूसरा समवाय मानिये तो अनवस्था आवै। ताते यह भी कहना सवाध है ॥ वहुरि अद्वैतब्रह्म मानि बंधमोक्ष बतायै ती कैसे बने । वंध तो अविद्यासुं उपजै है ब्रह्मकै अविद्या लागै नांही। न्यारा तत्त्व मानिये तोतता आवै। अवस्तु मानिने ती अवस्तूकी कथनी कहा? ताते यह भी मानना सवाध है। तातै जनमत स्याद्वाद हैं। | वस्तुका स्वरूप अनंतधर्मात्मक कहै है। यामै सर्वज्ञ वक्ता तथा तथा गणधरादि यतीनिकी परंपराते यथार्थ कथनी है।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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