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________________ वच निका पान तामैं बंध, मोक्ष, तथा बंध करनेवाला, छूटनेवाला आदि सर्व व्यवस्था संसवै है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये छह द्रव्य हैं। तिनिमें जीव तौ अनंतानंत हैं । पुद्गल तिनित भी अनंतानंत गुण हैं । धर्म अधर्म आकाश एक एक द्रव्य हैं। काल असंख्याते द्रव्य हैं। इनि सबनि एक एक द्रव्यके तीन कालसंबंधी अनंते अनंते पर्याय हैं। सो इनिकी कथनी सद्रूप, असद्रूप, एकरूप, अनेकरूप, भेदरूप, अभेदरूप, नित्यरूप, अनित्यरूप, शुद्धरूप, अशुद्धरूप इत्यादि नयविवसर्वार्थ क्षाः कथंचित् सर्व संभव हैं। बहुरि निमित्तनैमित्तिकभावतें पांच तत्त्वकी प्रवृत्ति होय आसव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष । __टी का आस्रवबंधके भेद पुण्यपाप हैं। ऐसे कथंचित् सर्व निधि जैसे वस्तु विद्यमान है तैसे ही ताकी कथनी है, कल्पित नाही। अ.१ ताते तत्त्वार्थसूत्रविर्षे वस्तुका कथन यथार्थ है। ताका प्रथमसूत्र ऐसा ॥ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥ याका अर्थ- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र ऐ तीनूं है ते भेले भये एक मोक्षमार्ग है ॥ इहां सम्यक् ऐसा | पद अव्युत्पन्नपक्ष अपेक्षाती रूढ है। बहुरि व्युत्पन्नपक्ष अपेक्षा 'अंच्' धातु गति अर्थ तथा पूजन अर्थविर्षे प्रवर्ते है, II कर्ता अर्थवि4 'किप ' प्रत्यय है, तातै इहां प्रशंसा अर्थ ग्रहण कीया है। बहुरि यह सम्यकपदकी प्रत्येक समाप्ति करना । तीनां उपरि लगावना । तब ऐसें कहिये, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चरित्र इनि तीनांहीका स्वरूप लक्षणथकी वा प्रकार भेदथकी तौ सूत्रकार आगें कहसी। इस सूत्रमें नाममात कहे । बहुरि टीकाकार व्याख्यान करै हैं। पदार्थनिका यथार्थज्ञानके विपयविर्षे श्रद्धानका ग्रहणके आर्थि तौ दर्शनकै सम्यक् विशेपण है। बहुरि जिस जिस प्रकार जीवादिक पदार्थकी व्यवस्था है, तिस तिस प्रकार निश्चयकरि जानना, सो सम्यग्ज्ञान है । याकै सम्यक विशेपण विमोह संशय विपर्ययकी निवृत्तिकै अर्थि है। वहुरि संसारके कारण जे मिथ्यात्व, अविरति, प्रसाद, कपाय, योग इनितें भये आस्रव बंध तिनकी निवृत्ति प्रति उद्यमी जो सम्यग्ज्ञानी पुरुप, ताकै कर्मका जाते ग्रहण होय ऐसी जो क्रिया ताका निमित्त जो क्रिया, ताका त्याग, सो सम्यक्चारित्र है। तथा कर्मनिका 'आ' कहिये ईपत् 'दान' कहिये खंडन ताका निमित्त जो क्रिया ताका त्याग, आत्माके एकदेशकर्मक्षपणांका कारण परिणामविशेप ताका भी त्याग, तथा कर्मनिका समस्तपणे क्षयकारणपरिणाम चौदह गुणस्थानके अंतसमयवर्ती सो सम्यक् निवृत्तिरूप चारित्र है, ऐसा भी अर्थ है ॥ याकै अज्ञानपूर्वक चारित्रकी | निवृत्तिकै अर्थि सम्यक् विशेपण है। जाते इनि तीननिकी निरुक्ति ऐसी है, 'पश्यति' कहिये जो श्रद्धान करै सो दर्शन र है, इहां तो कर्तृसाधन भया। तहां करनहारा आत्मा है सो ही दर्शन है । बहुरि · दृश्यते अनेन । कहिये श्रद्धिये ।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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