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________________ वच निका 15 परका हित कहनाही है एक कार्य जिनकै, भले भले वडे पुरुपनिकरि सेवने योग्य, जे निग्रंथआचार्यनिमें प्रधान, तिनिहि | प्राप्त होयकरि विनयलहित पूछता हुवा - हे भगवन् या आत्माका हित कहां है ? आचार्य कहते भये आत्माका हित । मोक्ष है। तब फेरी शिष्य चूछी जो, मोक्षका कहां स्वरूप है ? अरु याकी प्राप्तिका उपाय कहां है ? तब आचार्य कहै है जो यहू आत्मा जब समस्तकर्ममल कलंकरहित होय तब शरीरकरि भी रहित होय, तब छद्मस्थके चितवनमैं न आवै सर्वार्थ | सिद्धि अरु स्वभावहीत भये ऐसे ज्ञानादि गुण जामैं पाइए, तथा निराबाध सुखस्वरूप, अविनश्वर, आत्माकीही इस संसार अवटीका स्थातें अन्य जो अवस्था सो मोक्ष है। सो यहु मोक्ष अत्यंत परोक्ष है। यातै छमस्थ जे अन्यवादी, आपकू तीर्थकर 10 पान अ. ग माने ते याके स्वरूप न पहूंचती जो वाणी ताकरि अन्यथा कल्पै है। प्रथम तो सांख्यमती कहै है - पुरुपका स्वरूप ७ चैतन्य है। सो स्वरूप ज्ञेयाकारके जाननै” पराङ्मुख है, ऐला मोक्ष कहै है। सो यह कहना छताही अणछतारूप है। जातै निराकार है सो जडवत् है, गधाके सींगवत् कल्पना है। बहुरि वैशेपिकमती कहै है - आत्मावि बुद्धि, इच्छा, द्वेप, धर्म, अधर्म, सुख, दुःख, संस्कार, यत्न गुण है। तिनिका सर्वथा नाश होय है सो मोक्ष है। सो यह भी कल्पना झूटी है। । विशेषनिकरि शून्य तौ अवस्तु है। बहुरि बौद्धमती कहै है- जैसे दीपग बुझि जाय प्रकाशरहित होय जाय । तैसे आत्मा भी ज्ञानादिप्रकाशरहित होय जाय तब निवार्ण कहिये । सो यह भी कहनां गधाके सींगसारिखा तिनिके वचनकरिही आवै है ॥ आदिशब्द वेदांती ऐसा कहै है जो जैसे घट फूटिजाय तब घटका आकाश प्रगट होय तैले देहका अभाव होय तब सर्व ही प्राणी परमब्रह्ममैं लय होय जाय है । ब्रह्मका रूप आनंदस्वरूप है। जहां अत्यंत सुख है, ज्ञानहीकरि ग्राह्य है, इंद्रियगोचर नाही सो मोक्षविर्षे पाइए है ऐसा कहै है। सो भी कहना यथार्थ नाही । जाते प्राणी तो जुदे जुदे अपने स्वरूपमैं तिष्ठै है। परब्रह्ममैं लीन होना कैसै संभवै ? इनकं आदि जे अनेक मत हैं ते अपनी अपनी बुद्धिते अनेक कल्पना करै हैं। सो मोक्षका स्वरूप यथार्थ सूत्रकार आगै कहसी सो जाननां ॥ बहुरि या मोक्षकी प्राप्तिके उपायप्रति भी अन्यवादी विसंवाद करै हैं। केईक कहै हैं चारित्रादिककी अपेक्षा नाही। केईक कहै हैं ज्ञानचारित्रविना श्रद्धानमात्रहीते मोक्ष हो है। केइक कहै हैं ज्ञानरहित चारित्रमात्रहीते मोक्ष होय है ऐसे कहै हैं। सो यहु कहनां अयुक्त है। जैसे रोगीकै रोगके दूरि होनेके कारन जे औषधका ज्ञान, श्रद्धान, आचरण, ते जुदे जुड़े रोगकू दूरि न करि सकै तैसें मोक्षकी प्राप्तिके उपायभूत जे ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र, ते जुदे जुदे मोक्ष... न करि सके हैं। तीनोंकी एकता है सोही मोक्ष प्राप्तिका उपाय है। सोही सूत्रकार जो श्रीउमास्वामी आचार्य सो सूत्र कहै है। यह सूत्र Tol उपयोगस्वरूप आत्माकी सिद्धि होते ताके सुननेकी ग्रहण करनेकी इच्छा होते प्रवर्ते है॥
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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