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________________ ISREREGISIONchanRINCL आलस्यका होना, हृदयमें भेदविज्ञानका अभाव रहना, जिस कार्यको आरंभ कर दिया है उसकी परिहै पूर्णताका न होना, भयभीत रहना, इंद्रियों के विषयों में अत्यंत लालसा रखना, मायाचारी करना, अत्यंत ॐ मध्याव । तृष्णा रखना, अत्यंत अहंकार करना, दुसरेको ठगना, झूठ बोलना, चंचलताका होना और अत्यंत रू लुब्धता रखनानीललेश्याका लक्षण है । दूसरेके साथ मत्सरता रखना, चुगली करना, दूसरेको तिर। स्कार करनेकी अभिलाषा रखना, अपनी प्रशंसा और परकी निंदा करना, वृद्धि हानिकी गणना न हूँ है करना, अपने जीवनकी आशाका न रखना, प्रशंसा करनेसे घनदान, युद्धमरण और उद्योगमें प्रवृत्तिका होना कापोतलेश्याका लक्षण है । दृढरूपसे मित्रताका करना, सदा अपनेको उपलंभित करना, सत्य बोलना, दान और शीलमें प्रवृत्ति रखना, अपने कार्यके संपादनमें प्रवीणताका होना, भेद विज्ञान और ध्यानमें प्रवृत्त रहना, समस्त धर्मोंसे समभाव रखना, तेजोलेश्याका लक्षण है । सत्यवाणी बोलना, क्षमा रखना, पांडिस और सात्विक भावोंका होना, दान देनेमें अग्रणी होना, हरएक बातमें चतुरता और सरलताका होना, गुरु और देवकी पूजा करनेमें निरंतर प्रवृचिका होना पद्मलेश्याका लक्षण है । राग द्वेष मोहका न होना, शत्रुके दोषोंका ग्रहण न करना, निदानका न करना, हिंसाजनक समस्त कार्यों के आरंभ करनेमें उदासीनता रखना एवं मोक्षके मार्ग सम्यग्दर्शन आदिका अनुष्ठान भक्ति आदि करना शुक्ललेश्याके लक्षण हैं। अर्थात् जिस जिस लेश्याके जो लक्षण बतलाए गये हैं वे लक्षण जिस व्यक्तिमें * दीख पडें उस व्यक्तिको उसी लेश्याका धारक समझ लेना चाहिये । अब लेश्याओंकी गति पर विचार ६ किया जाता है.. __कपोत लेश्यासे परिणत आत्मा किस गतिको प्राप्त होता है इसका उचर- यह है कि लेश्याके Resea
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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