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________________ अध्याय CHATURNSRCIBRASTRICKETERATORSite में है । विमान परिवार आदि स्वरूप परिग्रह भी नीचे नीचे के स्वर्गों में रहनेवाले देवोंकी अपेक्षा ऊपर हूँ है ऊपरके स्वर्गों में रहनेवाले देवोंके कम है यह बात पहिले कही जा चुकी है । परिग्रह और आभिमानकी, है ऊपर ऊपरके स्वर्गों में रहनेवाले देवोंमें क्यों हीनता है ? वार्तिककार इसविषयका स्पष्टीकरण करते हैं प्रतनुकषायत्वाल्पसंक्लेशावधिविशुद्धितत्त्वावलोकनसंवेगपरिणामानामुत्तरोत्तराधिक्यादभिमानहानिः॥९॥ ___ कषायोंकी अत्यंत मंदतासे थोडा संक्लेश होता है संक्लेशकी अल्पतासे अवधिज्ञानमें विशुद्धता । होती है तथा संक्लेशसे अवधि ज्ञानमें हीनता होती है यह बात ऊपर कह दी गई है। अवधिकी विशु-4 द्धतास शारीरिक और मानमिक दुःखोंसे व्याप्त नारकी तिर्यंच और मनुष्योंको ऊपर ऊपरके देव प्रकहूँ ष्टतासे देखते हैं। दूसरोंके कष्ट देखनेसे संसारसे घबडाहट और भय उत्पन्न होता है यह स्वानुभव प्रसिद्ध है है इसलिए नारकी आदिके दुःखोंके देखनेसे संसारसे उद्वेग और भय उत्पन्न होता है। उस उद्वेग और है भय रूप परिणामसे दुःखके कारण और परिणाममें महादुःखदायी-परिग्रहोंमें आभिमान कम होता चला जाता है । इससीतसे ऊपर ऊपरके देवोंमें परिग्रह और आभमानका कम होना स्वाभाविक है। और 9 भी यह बात है कि- . __ . . . विशुद्धपरिणामप्रकर्षनिमित्त्वाच्च उपर्युपर्युपपत्तः ॥१०॥ कारण जैसा होता है कार्य भी उसका वैसा ही होता है। विशिष्ट पुण्यबंधमें कारण विशिष्ट विशुद्ध है परिणाम है और उस विशिष्ट पुण्य कर्मसे ही देवोंमें उत्पन्न होना होता है हसरीतिसे देवोंकी उत्पचिमें जबे विशुद्ध परिणामनिमित्तक पुण्यबंध कारण है तब उनमें अशुभ परिणाम स्वरूप आभिमानकी उत्क- १०९४' कटता नहीं हो सकती-हीनता ही रहेगी। खुलासा इसप्रकार है ASPUTELADRISTMABORSE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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