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________________ पाठ १७-इच्छाकारणं प्रश्नोत्तरी [७१ प्र० : जीव-विराधना का प्रसंग आने पर विराधना टालने के लिये क्या प्रयत्न करना चाहिये। उ० : अधिक जीव-विराधना न हो-इसका प्रयत्न करना चाहिये। जैसे, पृथ्वीकाय की यतना के लिये जाते-आते पैर मे मिट्टी लग जाय, तो पैरो को पूंजकर बैठना चाहिये। अपकाय की यतना के लिये कपडा पानी से भीग जाय, तो उसे एक ओर रख देना चाहिये। रात्रि को बाहर जाते-आते मस्तक और अन्य अग कपडे से भली भांति ढककर जाना चाहिये,(जिससे रात्रि को सूक्ष्म बरसने वाली वर्षा के जीवो की मस्तक तथा अन्य अगों की ऊष्णता से विराधना न होवे।) तेजस्काय की यतना के लिये वन मे कोई चिनगारी लग जाय, तो यतना से दूर कर देना चाहिये। वायुकाय की यतना के लिये वायु से कपडे उडने लगे, तो वायुरहित स्थान मे जाकर बैठ जाना चाहिये। वनस्पतिकाय की यतना के लिये पत्ते, बीज आदि आ गिरें, तो धीरे-से उठाकर एक ओर जाकर रख देना चाहिये, पर बैठे-बैठे फेकना नही चाहिये। बसकाय की यतना के लिये कीडी, मकोडी आदि आसन या शरीर पर चढ जायं, तो देख-पूंज कर अलग करना चाहिये। कुत्ते आदि को शब्द से या धीरे-से हो दूर करना चाहिये। दिन को देख कर तथा रात्रि को मार्ग पूंजकर आना-जाना चाहिए। आसन आदि को देख-पूंजकर उठना-बैठना तथा सोना चाहिए । शरीर को देख-पूंजकर खुजालना चाहिए। ज्ञान-चर्चा या बातचीत करते हुए कोई कटु शब्द निकल जाय या कभी किसी के मन के विपरीत कोई काम हो जाय, तो हाथ जोड़कर नम्रता से क्षमा याचना करना चाहिये।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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