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________________ ७२ ] जैन सुवोध पाठमाला इत्यादि प्रयत्न करने से अधिक होने वाली विराधना टल जाती है । -भाग १ daginnte प्र० : इच्छाकारेण से क्या केवल जीव - विराधना की ग्रालोचना को जाती है ? उ० : नही । अट्ठारह पापो में जीव-विराधना ( हिंसा ) का पाप पहला (मुख्य) है | इसलिए 'इच्छाकारेण' से जो जीव- विराधना की ग्रालोचना की है, उससे शेष रहे हुए १७ पापो की भी आलोचना की गई समझनी चाहिए । ( यहाँ भी पहले दिया हुआ 'रोटी खाई' का दृष्टान्त समझ लेना चाहिए ।) पाठ १८ अट्ठारहवाँ ४. तस्सउतरी : उत्तरीकरण का पाठ तस्स - उत्तरी- करणेणं, पायच्छित्त करणं, विसल्लो- करणं, पावाणं 1 अन्नत्थ विसोहि - करणं, कम्माणं, निग्घायरट्टाए, ठामि काउस्सग्गं ऊस सिएरणं, नोससिएरणं, खासिएणं, छोएणं जंभाइएणं, उड्डुएणं, वाय- निसग्गेणं, भमलीए, पित्त- मुच्छाए ॥१॥ सुहुमेह अंग-संचालेहि, सुहुमेहि खेल संचालेहि, सुमेह दिट्टि संचाहि ॥ २॥ एवमाइएहि, प्रागारेहि,
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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