SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० ] जैन सुवोध पाठमाला--भाग १ प्र० : जीव-विराधना न हो--इसके लिये पहले से ही ध्यान कैसे रखना चाहिए ? उ० : जीव-विराधना के स्थान से दूर बैठना चाहिए। जैसे पृथ्वीकाय की यतना के लिए जहाँ सचित मिट्टी हो, अपकाय की यतना के लिए जहाँ पानी के घडे रक्खे हो, नल चलता हो, तेजस्काय की यतना के लिये जहाँ लोग प्राग तपते हो, वायुकाय की यतना के लिए जहाँ वायु अधिक चलती हो, वनस्पतिकाय की यतना के लिये जहाँ धान के थैले पडे हों, घट्टी हो, वृक्षो से पत्ते-फूलवीज गिरते हो, त्रसकाय की यतना के लिए जहाँ कीडोमकोडो के विल हो, मकडी के जाले हा, खटमला के स्थान हो, कीडी, मकोड़ी, मकडी आदि के जाने-माने के मार्ग हो-वहाँ नही बैठना चाहिए। यदि दूसरा स्थान न हो, तो हाथ भर दूरी से बैठने का ध्यान रखना चाहिए-जिससे पृथ्वीकायादि तथा द्वीन्द्रियादि की हिंसा का प्रसग ही उपस्थित न हो। इसी प्रकार कुत्ते, गाय आदि घुस जायं--ऐसे फाटक खुले नही रखना चाहिए, जिससे फिर उन्हे ताड कर निकालना न पड़े। गिर कर कोई जीव कैद न हो जाय या मर न जाय~-इसलिए पात्र खुले नही रखना चाहिए। किसी का पैर पड़ कर समूच्छिम जीवो की हिंसा न हो, मच्छर आदि पैदा न हो इसलिए मल-मूत्र जहाँ-तहाँ परठना (डालना) नही चाहिए। किसी का मन न दुखे- इसलिए मीठी तथा ऊँची वोली मे जान-चर्चा या वातचीत करना चाहिए। विना' पूछे कोई काम भी नहीं करना चाहिए। इत्यादि ध्यान रखने से जीवविराधना का प्रसग प्राय. नही पाता।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy