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________________ १६८ ] जैन सुवोध पाठमाला - भाग १ प्राये थे सभी भगवान् को हराने पर सभी भगवान् मे हारे । ऐसी हार सदा ही सव की हो । जिस हार से सत्य की प्राप्ति हो, वह हार 'हार' नही, सत्य की 'विजय' है । पुराना सम्बन्ध भगवान् के चरणो मे पहुँचने से पहले श्री गौतमस्वामी को भगवान् के लिए 'सर्वज्ञ' शव्द भी सहन नही हुआ था । पर अब उन्हे भगवान् के प्रति परम ग्रनुराग उत्पन्न हो गया । वे सदा भगवान् की प्रशंसा करते । सदा उनके ही निकट परिचय से रहते, सेवा करते । प्राय साथ-साथ विहार करते श्री भगवान् की प्राज्ञा का पूर्ण पालन करते । श्री इन्द्रभूति गीतम को भगवान् के साथ ऐसा परम अनुराग जुडने का कारण यह था कि, वे कई भवो से भगवान् के साथ सारथि ग्राद नाना प्रकार के सम्बन्ध करते चले ग्रा रहे थे । राजगृही की वात है । परिपदा व्याख्यान सुनकर चली गई थी । तव भगवान् महावीरस्वामी ने स्वय गौतमादि को वुलाकर यह रहस्य प्रकट किया था । उन्होने कहा . 'गौतम । तुम बहुत पुराने समय से मुझ पर स्नेह रखते चले आ रहे हो । मेरी प्रशसा, मेरा परिचय, मेरी सेवा, मेरा अनुगमन प्रौर मेरी ग्राज्ञानुसार बर्ताव करते चले आ रहे हो । कई मनुप्य-भव और कई देव भव तुमने मेरे साथ किये हैं । पिछले देव भव मे भी तुम मेरे साथ थे । श्रव यहाँ इस भव तक ही नही, भविष्य मे भी सदा के लिए साथ रहोगे और काल करके हम दोनो ही मोक्ष मे एक समान भी वन जायेंगे ।' ( भगवती शतक १४, उदेशक ७) ।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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