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________________ कथा-विभाग-२ गणधर श्री इन्द्रभूतिजी [ १६७ शब्द सुनाये, जिससे उन्हे सम्पूर्ण शास्त्रज्ञान (चौदह पूर्व का ज्ञान) हो गया। तीन शब्दो से सम्पूर्ण शास्त्र-ज्ञान हो जाने पर भगवान् ने उन्हे गणधर पद दिया और वे ५०० छात्र,, उनके शिप्य बना दिये। इधर जव अग्निभूति आदि १० उपाध्यायो ने देखा कि 'बहुत समय हो गया है, पर, अब तक इन्द्रभूति लौटकर नही आये', तो सोचा कि 'क्या बात है? वे अब तक इस इन्द्रजालिक महावीर को हरा कर क्यो नही पाये ?' अग्निभूति ने कहा · 'अस्तु, मैं जाता हूँ, देखता हूँ और अभी हराकर आता हैं।' इस प्रकार विचार करके वे सभी क्रमश भगवान् के चरणों मे पहँचते रहे और मभी की शकाए मिटतो गई। २ श्री अग्निभूतिजी,को-कर्म के, अस्तिव मे, ३ श्री वायुभूतिजी को जीवशरीर की भिन्नता मे, ४ श्री व्यक्तभूतिजी को अजीव-जड के अस्तित्व मे, ५. श्री सुधर्मा स्वामी को योनि-परिवर्तन में, ६. श्री मण्डितपुत्रजी को कर्मों के बध-मोक्ष मे, ७ श्री मौर्यपुत्रजी को देवो के अस्तिव मे, ८. श्री अकम्पितजी को नारकी'जीवो के अस्तित्व मे, ६:श्री अचलभ्राताजी को कर्मों के दो रूप १ पुण्य, २ पाप के अस्तित्व मे, १०. श्री मैतार्यजी को परलोक के अस्तित्व मे तथा ११. श्री प्रभासजी को मोक्ष-प्राप्ति मे सन्देह था। . . . . . . ! : - सभी अपनी-अपनी शिकाएँ मिटने पर अपने-अपने शिष्यो के साथ भगवान के शिष्य बनते रहे। इस प्रकार भगवान् 'महावीरस्वामी के पास एक ही दिन मे ४४०० (५००+५००+ ५००+५००+५००+३५०+३५०+३०० + ३०० + ३००+ ३00-४४००) शिष्यो की दीक्षा हुई और ग्यारह गणधर हुए। सबसे बडे शिप्य और प्रथम गणधर श्री. इन्द्रभूतिजो हुए )
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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