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________________ २४४ . ... श्रमण महावीर सम्राट ने कहा-'भते ! बहुत आश्चर्य है । ये हमारी आंखें कितना धोखा खा जाती हैं । हम शरीर के आवरण में छिपे मन को देख ही नहीं पाते। भंते ! अब भी राजपि नरक की दिशा में प्रयाण कर रहे हैं या लौट रहे हैं ?' 'लौट चुके हैं।' 'भंते ! किस दिशा में ?' 'निर्वाण की दिशा में। 'यह कैसे हुआ, भंते?' 'आवेश का अंतिम विन्दु लोटने का आदि-बिन्दु होता है। राजर्षि मानसिक युद्ध करता-करता उसके चरम विन्दु पर पहुंच गया। तब उसे अपने अस्तित्व का भान हुआ। वह कल्पना-लोक से उतर वर्तमान के धरातल पर लौट आया। वहां पहुंचकर उसने देखा-न कोई राज्य है, न कोई राजा और न कोई मंत्रियों का पड्यंत्र । वह सब वाचिक था। उसने राजपि को इतना उत्तेजित कर दिया कि वह कुछ सोचे-विचारे बिना ही कल्पना-लोक की उड़ान भरने लगा। अब वर्तमान की जकड़ मजबूत हो गई है। इसलिए राजपि निर्वाण की दिशा में बढ़ रहा है।' सम्राट् भगवान् की वाणी को समझने का प्रयत्न कर रहा था। इतने में भगवान् ने कहा-'श्रेणिक ! राजपि अब केवली हो चुका है।' __ पाप की प्रवृत्ति करने में मन के सामने शरीर का कितना मूल्य है, यह बता रही है राजपि की ध्यान-मुद्रा । ध्यान-मुद्रा में खड़े हुए शरीर को मन के दोप का भार होना पड़े, यह उसकी दुर्वलता ही तो है । प्रवृत्ति के सत् या असत् होने का मानदंट यदि शरीर ही हो तो ध्यान-मुद्रा में खड़ा हुआ व्यक्ति नरक की दिशा में नहीं जा सकता।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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