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________________ ( २२ ) हैं एक चेतन दूसरी अचेतन । यह हमारी आत्मा जिसको जीव भी कहते हैं वह तो चेतन है जो कि अपने सहज भाव पर आजावे तो विश्वभर की सभी चीजो को एक साथ देखने जानने वाला बन जावे परन्तु अपने आपे से गिरा हुवा है इस लिये इसकी यह दशा हो रही है । परः पुनः पञ्चविधः सधर्मा-धर्मो विहायः परिवर्तनर्मा शेषः स्वयंदृश्यतयाऽनुलोमीजीवादयोऽन्येनहिरूपिणोऽमी || अर्थात् - दूसरा पदार्थ अचेतन जो देख जान नही सकता वह पांच प्रकार का है। धर्म १ अधर्म २ श्राकाश ३ काल ४ और पुद्गल ५ इस तरह से अचेतन पदार्थों में से अन्त का पुद्गल नामा पदार्थतो दृश्यता यानी रूप और उसके साथ रहने वाले रस गन्ध एवं स्पर्श नामक गुणोंका धारक मूर्तिक है बाकी के चारों, रूपादि रहित अमूर्तिक हैं जीव भी रूपादि रहित अमूर्तिक है । किन्तु याद रहे कि जीव का यह मूर्तिकपन संसारातीत शुद्ध दशा मे होता है संसारावस्था में तो कर्मों के साथ एकमेक हो रहने के कारण मूर्तिक ही है जैसे कि - तिल के साथ मे रहने वाला तेल अपने पतलेपन से रहित घनरूप हो कर रहता है ऐसा जैनशासन में बतलाया है देखो श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत समयसार की गाथा नं० ५६ में ववहारेण दुएढ़ेजीवस्सहवन्ति वरणमादीया ऐसा लिखा हुवा है फिर भी वह छद्मस्थोके दृष्टिगोचर होने
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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