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________________ ( १७८ ) - - निर्ग्रन्थपदवाच्यत्वमपि स्पष्टतयामुनेः उपयोगस्तथाझुद्धः स तत्रैवास्तु वस्तुतः । ६०॥ अर्थात्- भावनिक्षेप की अपेक्षा से निर्ग्रन्थ कहलाने की पात्रता मुनिराज को वहीं पर जाकर प्राप्त हो पाती है क्यो कि ग्रंथ नाम परिग्रह का है और अन्तरंग परिग्रह में जिस प्रकार मिथ्यात्व को बताया गया है उसी प्रकार से चारित्रमोह को सभी कषार्यों को भी परिग्रह माना है एवं निर्मन्थपन के लिये उन सभी कषायों के अभाव की जरूरत हो जाती है जो कि वहीं जाकरके पूरी होती है अतः शुद्धोपयोग भी वास्तविक रूप में वहीं जाकर होता है। स्वरूपा चरणं भेद-विज्ञानं ज्ञानचेतना शुद्धोपयोगनामानि कथितानि जिनागमें।६१॥ अर्थात्-शुद्धोपयोग का नाम ही ज्ञानचेतना, भेदविज्ञान और स्वरूपाचरण चारित्र है जिसमें कि आत्मा पर पदार्थो से विमुख होकर अपने आप का अनुभव करने लगती है और इसका नाम शुक्ल यान भी है जैसा कि पं० दौलतराम जी ने अपने छहढाले में लिखा है देखो-- यो है सकल सयम चरित सुनिये स्वरूपा चरणं अब । जिस होत प्रगटे आपनी निधि मिटे पर की प्रवृति सव ॥७॥ __ यों कह कर उन्होंने इसके आगे उसी शुक्लध्यान का वर्णन किया है जिसके कि सुललितसमागम से घातिया काँका
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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