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________________ ( १७७ ) - - सफल नहीं हो सक रहा हो वह वकुशमुनि होता है । यह दोनों मुनि छटे और सातवे गुणस्थान में होते हैं । इसके उपर अष्टमादि-श्रेणिमध्यगुणस्थानों में कुशीलमुनि होता है यद्यपि यह प्रमादरहित होते हुये वर्तव्यपरायण हो रहा होता है, फिर भी इसके परिणामों में कपायों की वजह से गदलापन बनाहुवा होता है। शरकालीन जल की भांति इसके परिणाम निर्मल न होकर वकालीन जल की भांति होते हैं। मतलब यह कि यह जीव कृतकार्य नहीं किन्तु अभी तक कर्तव्यसनिविष्ट ही है जैसा कि नीचे दिखलाते हैंशाखिनिप्रवहन्नन्ते कुठारः केवलं करे योग आत्मनि सम्पन्नो दशमाद्गुणतः परं ॥८६॥ ____ अर्थात्-इस प्रकार करते हुये होकर जब दशगुणस्थान से उपर पहुंच जाता है तभी वह श्रात्मा का योग जो कि कपायों को नष्ट करने के लिये किया जाता है सम्पन्न हुवा कहलाता है जैसे किसी पेड को काटने के लिये उस पर बहने वाला कुठार उस काटते काटते अन्तमे उसे बिलकुल काट चुकने पर वह तक्षक के हाथ में निश्चल हो रहता है और उस समय-उससे जो आश्वासन मिलता है बस वही दशा इस पाल्मा की भी दश गुणस्थान के उपर हो पाती है यानी इसको अपने आपमें विश्राम प्राप्त होता है ।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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