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________________ ( १७६ ) अभाव होकर यह आत्मा परमात्मा हो जाता है और यह पं० दौलतराम जी का लिखना है भी ठीक क्यों कि-"स्वरूपे आसमन्ताचरणं" यानी अपने आपमें पूरी तोर से लीन हो रहना ऐसा ही स्वरूपाचरण का मतलब होता है जैसा कि श्री प्रवचनसार जी के गाथा नं०७ की टीका में श्री अमृतचन्द्र प्राचार्य जी ने भी लिखा है कि- स्वरूपे चरणं चारित्रं स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थः । तथा इसी को भेदविज्ञान भी कहते हैं जैसा कि श्री अमृतचन्द्र स्वामी जी ही इस अपने समयसारफलश में लिखते हैचैदप्यं जइरूपतां च धतोः कृत्वा विभाग द्वयो रन्तरुणदारणेन परितोज्ञानस्य रागस्य च । भेदनानमुद्रतिनिर्मलमिदमोदध्वमध्यासिताः शुद्धनानघनधिमेकमधुना सन्तोद्वितीयच्युताः॥१२॥ इसमे बतलाया है कि ज्ञान का लक्षण जानना है और पर द्रन्यानुयायीपन, राग का लक्षण है। इस प्रकार दोनों के लक्षण को ध्यान में लेकर अपने विचार के द्वारा अपनी अन्तरात्मा के पूरीतोर से मिन्न भिन्न दो भाग करके ज्ञान को राग से पृथक् कर लेने पर भेदज्ञान प्रास होता है जो कि बिलकुल निर्मल होता है । सो यह वही बात है जिसको कि पं० दौलतराम जी ने अपने छहढाले में जिन परमपैनीसुधिछनीडारि अन्तर भेदिया । वर्णादि अरुरागादित निजभाव को न्यारा किया।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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